बॉलीवुड के टॉप गीतकारों में शामिल इरशाद कामिल का लिखा ‘दिल दिया गल्ला..’ अब भी लोगों के जेहन में बसा है और 'बेखयाली में भी तेरा ही ख्याल आए, क्यों बिछड़ना है जरूरी ये सवाल आए' जैसी लाइनों ने एक बार फिर इरशाद के शब्दों को अमर बना दिया है।
2015 में वाणी प्रकाशन ने उनकी किताब एक महीना नज़्मों का प्रकाशित की थी, जिसके बारे में इरशाद ने कहा है कि यह किताब असलियत के आसमान में रोमानियत की उड़ान है। इसमें लिखी नज़्में उम्मीद के धागों पर, बारिश के बाद पानी की बूंदों की तरह तैरते रंग-बिरंगे ख़्वाबों को ज़ुबान देती हैं।
इस किताब में इरशाद ने अपनी नज़्मों के बीच में चंद लफ़्ज़ों में कई एहसासात भी बांधे हैं, पेश हैं आपके सामने कुछ ऐसे ही जज़्बात
मेरे और उसके नाम
या फिर
तुम्हारे और उसके नाम
या चलो
सिर्फ़ उसी के नाम...
सर्दी थी
छत थी
वो थी... मैं भी था।
खुसरो की पहेली सी उलझी
ये उमर गुज़ारिश करती है
हर वक़्त मुझे समझाओ न
कुछ समझो भी...
एक लफ़्ज़
मैं जेब में रखके
तुमसे मिलने आता हूँ
उसे बोले बिन मैं ले जाता हूँ।
कुछ रिश्तों का
नमक ही दूरी होता है
न मिलना भी
बहुत ज़रूरी होता है
आज उंगली कटी
याद की डोर से
खींचा फिर से किसी ने
तेरी ओर से।
फिर उस रस्ते
सजदा करने
अक्सर दिल ले आता है
जो तेरे शहर को जाता है।
भूख बड़ी
या प्यार
छोड़ न यार...
भीगी भीगी
सर्द रात और
बिजली गुल
परछाइयों में बातें पुल।
आप भला क्या समझाएंगे
इश्क़ मदरसा
सबक इश्क़ है
अब तो चारों तबक इश्क़ है
मेरे अंदर
बंजर-बंजर
तेरी प्यास
समंदर की
राही लौटे
पंछी लौटे
सूरज लौटा अपने देस
माये, कैसे लौटेगा वो
जिसके घर में है परदेस...
तुम झुंझलाना मुझ पर
और गुस्से में आकर
फाड़ देना उस ख़त को
जो तुमने अभी नहीं लिखा।
शहर की
तन्हाई से घबराई है
ये हवा
जो जंगलों से आयी है।
मैं किसी उजले गुलाबी दिन को
अपनी बंद मुठ्ठी खोल दूंगा
रख दूंगा चुपचाप एक लफ़्ज़
तुम्हारी दुधिया सी हथेली पर
जो ख़ुश्बू नहीं होगा
फिर भी महकेगा
चांदनी नहीं होगा
फिर भी चमकेगा
नशा नहीं होगा
फिर भी बहकेगा
तुम उस लफ़्ज़ को चुपचाप भरना चाहोगी
हाथों की लकीरों में
नहीं भर पाओगी मगर
फिर भी
वो उस लफ़्ज़ बस जायेगा तुम्हारी नस नस में...
मैं किसी उजले गुलाबी दिन को
अपने बंद होंठ खोल दूंगा
तुम्हारी रेशमी सी पलकों पर
रख दूंगा धीमे से एक लफ़्ज़
जो नींद नहीं होगा
फिर भी बोझिल होगा
ख़्वाब नहीं होगा
फिर भी नाज़ुक होगा
आंसू नहीं होगा
फिर भी कोमल होगा
वो लफ़्ज़
सोख लेगा तुम्हारी सारी नींदें
उस लफ़्ज से रिस रिस कर
टपकते रहेंगे ख़्वाब
तुम्हारी आंखों में
जिनकी ताबीर ढूंढ़ नहीं पाओगी
तो फिर किसी उजले गुलाबी दिन को
मैं अपनी बंद मुठ्ठी नहीं खोलूंगा
वो एक लफ़्ज़ नहीं बोलूंगा
तुम्हारे सामने बैठ
चुपचाप
पी जाऊंगा चाय की प्याली में घोल कर
वो एक लफ़्ज़
और उजले गुलाबी दिन को
बाहर से मदस्त नशे की रोयेंदार प्याली है
बाहर से मदस्त नशे की
रोयेंदार प्याली है
अंदर से ख़ाली ख़ाली है
सत्रह साल साल की नाज़ुक टहनी
झुकी, नज़र से गज़लें कहनी
जानें, लब हैं दो मिसरे...
मिसरी के पानी की नदिया
मर्ज़ी से बल खाती है
सुर्ख़ मोगरे से, पल में
अंगार अनल हो जाती है
गुस्सैल नज़र की खिड़की पर
काजल का पर्दा काला है
हालांकि है ये ख़बर, कोई
ना भीतर झांकने वाला है
इक सांकल नीम ख़ामोशी की
जज़्बात के दर पे डाली है
अंदर से ख़ाली ख़ाली है...